Krishnanand Saraswati/ Sharma Ji k 4 bandar

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Tuesday, August 9, 2011

खोजता हूँ प्रभु को जन्मों-जन्मों से

खोजता हूँ प्रभु को जन्मों-जन्मों से

कभी उसकी झलक दिखती है/ कभी दूर किसी तारे के पास उसकी आकृति दिखती है/ कभी उसकी छाया दिखाई पड़ती है/ लेकिन जब तक उस जगह पहुँचता हूँ जहाँ उसकी छाया थी, तब तक वह और दूर जा चुका होता है/ जब तक वहां पहुंचता हूँ जहाँ उसकी झलक दिखी, तब तक वह ना मालूम कहाँ खो चुका होता है/ ऐसे जन्म-जन्म भटक कर मेरी यात्रा पूरी हो गई है, और में उस द्वार पर पहुँच जो प्रभु का धाम है/

मैं उसकी सीढियां चढ़ गया और उसके द्वार की अपने हाथ मे ले ली, और जैसे ही में सांकल बजाने को ही था, तभी मेरे मान मे सवाल उठा कि यदि आज प्रभु मिल गया, तो फिर आगे क्या होगा ? आगे फिर मै क्या करूंगा ? अब तक तो उसी की खोज मे जन्म-जन्म बिताये/ मै व्यस्त था/ मै दोड़ रहा था/ मै कुछ कर रहा था और कुछ पा रहा था/ होने की, becomming की एक लम्बी यात्रा थी, उसमे मै रसलीन था/ मंजिल थी आगे, उसे पाने मे अहंकार को तृप्ति थी/ लेकिन अगर आज प्रभु मिल ही गया, तो कल, फिर कल नहीं होगा/ कोई भविष्य नहीं? कोई आशा नहीं? कोई मंजिल नहीं?

तो मैने वह सांकल आहिस्ता से छोड़ दी,कि कहीं कोई आवाज ना हो जाए/ अपने जूते हाथ मे उठा लिए और दबे पांव सीढियां उतर गया,कहीं कोई आवाज ना हो जाए और कहीं द्वार खुल ही ना जाएँ / और नीचे उतर कर में जोर से भगा उस घर से दूर , और पलट कर भी नहीं देखा, जब तक उस द्वार की झलक दिखाई देनी बंद ना हो गयी/

अब भी मै इश्वर को खोजता हूँ/ अब भी मै गुरुओं से पूछता हूँ कहाँ है उसका मार्ग ? और भली भांति मुझे पहचान है उसके घर की/ लेकिन अब में उसके घर के रास्ते से बच कर ही उसे खोजता हूँ, कि कहीं वह मिल ही ना जाए/ कहीं वह मिल ही ना जाए/