बुद्धि, बुद्धिमता, और स्मृति
बुद्धि, बुद्धिमता और स्मृति अलग - अलग हैं/
स्मृति अतीत है , बुद्धि की खोज भविष्य है, और बुद्धिमता, अन्त्स्चेतना,प्रज्ञा या विवेक वर्तमान है/
और यह ज़रूरी नहीं की स्मृति के साथ बुद्धि भी हो, या बुद्धि के साथ स्मृति भी हो/
विज्ञान का कहना है, की बहुत स्मृति हो तो समस्त चेतना उसी मे जकड जाती है, और ज्यादा बुद्धि नहीं हो पाती /
सारी शिक्षण संस्थाएं स्मृति पर जोर देती हैं, शायद इसीलिये दुनिया मे बड़ा बुद्धूपन है/
क्योंकि स्मृति का शिक्षण होता है, बुद्धिमता का कोई शिक्षण नहीं होता/
बुद्धिमता बोध और अनुभव से आती है/
बुद्धि,मन,सुधि,स्मृति, मनीषा, प्रतिमा सब चेतना के रूप हैं/ और इनसे जो भी जाना जाता है वह सीमित होगा,साकार होगा/ जैसे घर के अन्दर से घर की खिड़की से कोई आकाश को देखे तो आकाश उतना ही दिखाई पड़ेगा, जितना खिड़की का चोखटा है/
क्योंकि रूप /साकार से तुम अरूप/निराकार को नहीं जान सकते/
वह अरूप/निराकार तो छिपा हुआ है, अप्रछ्छन है - अन्त्स्चेतना है, बोध है, जागरण है,विवेक है/
उस अरूप को पकड़ो और इन रूपों को छोड़ दो/ और जैसे ही अरूप को भीतर पकड़ लोगे , वैसे ही सारे जगत मे निराकार की पहचान शुरू हो जाती है/
K.K.शर्मा
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Friday, March 19, 2010
MAAYA, BRHMN AUR BHAKTI
If you are a theist, means believe in 'GOD' - any 'GOD' then this mail is for you - But read it till last and you will be a different person after reading it.
KKSharma
--- On Fri, 19/3/10, Krishan Sharma wrote:
From: Krishan Sharma
Subject: MAAYA, BRHMN AUR BHAKTI
To: kksharma1469@yahoo.co.in
Date: Friday, 19 March, 2010, 2:53 PM
माया और ब्रह्मं
( माया और सत्य (ब्रह्मं) जानने से पहले यह जानना ज़रूरी है -- अरस्तु (Aristotle) के तर्क से या तो सत्य हो सकता है या असत्य हो सकता है , लेकिन भारतीय तत्वज्ञान कहता है तीसरी स्थिति भी होती है जो अभी सत्य प्रतीत होती है लेकिन भूतकाल मे नहीं थी और भविष्य मे फिर नहीं होगी/ यानि जो सदैव अपरिवर्तित रहती है वही सत्य है , तथा जो परिवर्तित होती है वह माया है सत्य नहीं/ या जो दिखाई पड़ती है और होती नहीं eg.: स्वप्न , पानी मे डालने के बाद सीधी लकड़ी का टेढ़ा दिखाई देना, या मरुस्थल मे पानी, दिन मे तारों का दिखाई ना देना )
आदि शंकराचार्य जानते हैं की माया नहीं है, क्योंकि जो नहीं है उसी का नाम माया है, जो अभी दिखाई पड़ती है और फिर नहीं हो जायेगी उसी का नाम तो माया है/
और ब्रह्मं, जो दिखाई नहीं पड़ता और है/ माया सदैव परिवर्तनशील है, ब्रह्मं सदैव सत्य है, शाश्वत है/
आदि शंकराचार्य और वेदांत के सामने एक अहम प्रश्न है - कि माया पैदा कैसे होती है? और क्यों होती है?
अगर माया नहीं है तो यह कहना - कि क्यों माया मे भटके हो - कुछ अर्थ नहीं रखता/ क्योंकि जो है ही नहीं उसमे कोई कैसे भटक सकता है/ और यह कहना कि छोड़ो माया को और भी व्यर्थ हो जाता है/ जो है ही नहीं उसे कोई छोड़ेगा/ पकड़ेगा कैसे ?
अगर माया है तभी छोडना/ पकड़ना संभव हो सकता है/ लेकिन अगर माया है तो बिना परमात्मा के कैसे और क्योंकर होगी? और अगर परमात्मा पैदा कर्ता है माया को तो फिर ज्ञानी एवं संत लोगों का माया को छोड़ने की शिक्षा देना परमात्मा के विरोध मे हो जाता है/
और दूसरा , जब माया ब्रह्मं से पैदा होती है याने सत्य से पैदा होती है तो फिर असत्य कैसे हो सकती है? क्योंकि सत्य से तो सत्य ही पैदा होगा/ या नहीं तो फिर यह मानना पड़ेगा कि असत्य माया असत्य ब्रह्मं से पैदा होती है/ और अगर सत्य ब्रह्मं से पैदा होती है तो फिर सत्य है माया नहीं/
ज्ञान और वेदांत जिस माया मे अभी भी भटका हुआ प्रतीत होता है, भक्त इस गुत्थी को एकदम सहजता से से हल कर लेता है/ भक्त के लिए माया परमात्मा / ब्रह्मं नामी उर्जा का विस्तार है/ उस परम प्यारे की लीला है, नृत्य है, गीत है, उत्सव है, खेल है/ भक्त के लिए माया यानि प्रकट या साकार ब्रह्मं/
लेकिन यह ख्याल रखना है ,कि खेल मे, लीला मे,उत्सव मे, नृत्य मे, गीत मे भी जागरण बना रहे उस अप्रकट/ निराकार ब्रह्मं का - जिस परम प्यारे का उत्सव चल रहा है पूरी सृष्टि मे/ जिधर देखो उधर वही नाच रहा है -उस की स्मृति बनी रहे, उस की विस्मृति ना हो /
भक्ति
भक्ति का अर्थ है उस परम प्यारे परमात्मा के प्रति समर्पण - यानि अब केवल वही है मै नहीं/ मै तो समर्पित हो गया, उस असीम, अनंत, समस्त ( total ) को, यानि मै तो विलय हो गया, मै बचा ही नहीं/
कबीर को याद करना पड़ेगा - ' प्रेम कि गली अति सांकरी, जा मे दो ना समाय'
और इस समर्पण से, इस प्रेम से तुम्हारा जीवन बदल जाएगा, तुम एक पल मे कुछ दूसरे हो जाओगे/ क्योंकि समस्त से प्रेमभाव का मतलब है कि अब इस विराट,असीम और अनंत ब्रह्माण्ड की रत्ती-रत्ती , इंच-इंच मेरा प्रियतम है/ पत्ते-पत्ते पर, कण-कण पर, फूल-फूल मे वही है, हर आँख मे वही है, हर तरफ वही है, सब कुछ वही है, उसके अलावा और कुछ भी तो नहीं है/ फिर हर आकर मे उस निराकार का आभास होने लगेगा/
तो भक्ति से तुम यह अर्थ मत लेना, कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर मे पूजा कर आये तो हो गयी भक्ति/ हर आकर मे उस निराकार को खोज लेने का नाम भक्ति है/
और उस समस्त, असीम परमात्मा से अनंत प्रेम के बाद तुम्हारी बदली हुई जीवन - शैली का नाम भक्ति है/ अब तुम्हारा सारा व्यवहार दिव्य हो जाएगा, क्योंकि सभी मे वही है, सब तरफ, सब जगह वही है/ तुम्हारा हर ढंग दिव्य हो जाएगा - उठना-बैठना, खाना-पीना, देखना-बोलना क्योंकि केवल एक वही तो है/
अब कैसे किसी की निंदा-चुगली करोगे, अब कैसे किसी को गाली दोगे, कैसे किसी का अपमान करोगे, कैसे किसी पर क्रोध करोगे, कैसे अपने को दूसरे की सेवा से बचा सकोगे/
और इस प्रेम का ऐसा रंग चढ़ेगा, इस बोध का ऐसा नशा चढ़ेगा, ऐसी मस्ती छा जायेगी - की तुम्हारे पास अपना कुछ भी नहीं होगा, फिर भी सब कुछ अपना ही महसूस होगा/ तुम अकेले हो जाओगे, लेकिन अखंडित हो जाओगे, अब सारा ब्रह्मांड तुम्हारे साथ होगा/
तुम सम्पूर्ण अस्तित्व से एक हो जाओगे, अद्वैत गया - और अब स्वामी रामतीर्थ की तरह तुम्हे भी अब यह चाँद-तारे, यह सूर्य, यह पृथ्वी अपने अन्दर परिभ्रमण करते हुए महसूस होंगे/ और शायद अब तुम भी यही कहोगे - अह्मं ब्रह्मास्मि
K.K.Sharma
URL: krishnanand101.blogspot.com
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KKSharma
--- On Fri, 19/3/10, Krishan Sharma
From: Krishan Sharma
Subject: MAAYA, BRHMN AUR BHAKTI
To: kksharma1469@yahoo.co.in
Date: Friday, 19 March, 2010, 2:53 PM
माया और ब्रह्मं
( माया और सत्य (ब्रह्मं) जानने से पहले यह जानना ज़रूरी है -- अरस्तु (Aristotle) के तर्क से या तो सत्य हो सकता है या असत्य हो सकता है , लेकिन भारतीय तत्वज्ञान कहता है तीसरी स्थिति भी होती है जो अभी सत्य प्रतीत होती है लेकिन भूतकाल मे नहीं थी और भविष्य मे फिर नहीं होगी/ यानि जो सदैव अपरिवर्तित रहती है वही सत्य है , तथा जो परिवर्तित होती है वह माया है सत्य नहीं/ या जो दिखाई पड़ती है और होती नहीं eg.: स्वप्न , पानी मे डालने के बाद सीधी लकड़ी का टेढ़ा दिखाई देना, या मरुस्थल मे पानी, दिन मे तारों का दिखाई ना देना )
आदि शंकराचार्य जानते हैं की माया नहीं है, क्योंकि जो नहीं है उसी का नाम माया है, जो अभी दिखाई पड़ती है और फिर नहीं हो जायेगी उसी का नाम तो माया है/
और ब्रह्मं, जो दिखाई नहीं पड़ता और है/ माया सदैव परिवर्तनशील है, ब्रह्मं सदैव सत्य है, शाश्वत है/
आदि शंकराचार्य और वेदांत के सामने एक अहम प्रश्न है - कि माया पैदा कैसे होती है? और क्यों होती है?
अगर माया नहीं है तो यह कहना - कि क्यों माया मे भटके हो - कुछ अर्थ नहीं रखता/ क्योंकि जो है ही नहीं उसमे कोई कैसे भटक सकता है/ और यह कहना कि छोड़ो माया को और भी व्यर्थ हो जाता है/ जो है ही नहीं उसे कोई छोड़ेगा/ पकड़ेगा कैसे ?
अगर माया है तभी छोडना/ पकड़ना संभव हो सकता है/ लेकिन अगर माया है तो बिना परमात्मा के कैसे और क्योंकर होगी? और अगर परमात्मा पैदा कर्ता है माया को तो फिर ज्ञानी एवं संत लोगों का माया को छोड़ने की शिक्षा देना परमात्मा के विरोध मे हो जाता है/
और दूसरा , जब माया ब्रह्मं से पैदा होती है याने सत्य से पैदा होती है तो फिर असत्य कैसे हो सकती है? क्योंकि सत्य से तो सत्य ही पैदा होगा/ या नहीं तो फिर यह मानना पड़ेगा कि असत्य माया असत्य ब्रह्मं से पैदा होती है/ और अगर सत्य ब्रह्मं से पैदा होती है तो फिर सत्य है माया नहीं/
ज्ञान और वेदांत जिस माया मे अभी भी भटका हुआ प्रतीत होता है, भक्त इस गुत्थी को एकदम सहजता से से हल कर लेता है/ भक्त के लिए माया परमात्मा / ब्रह्मं नामी उर्जा का विस्तार है/ उस परम प्यारे की लीला है, नृत्य है, गीत है, उत्सव है, खेल है/ भक्त के लिए माया यानि प्रकट या साकार ब्रह्मं/
लेकिन यह ख्याल रखना है ,कि खेल मे, लीला मे,उत्सव मे, नृत्य मे, गीत मे भी जागरण बना रहे उस अप्रकट/ निराकार ब्रह्मं का - जिस परम प्यारे का उत्सव चल रहा है पूरी सृष्टि मे/ जिधर देखो उधर वही नाच रहा है -उस की स्मृति बनी रहे, उस की विस्मृति ना हो /
भक्ति
भक्ति का अर्थ है उस परम प्यारे परमात्मा के प्रति समर्पण - यानि अब केवल वही है मै नहीं/ मै तो समर्पित हो गया, उस असीम, अनंत, समस्त ( total ) को, यानि मै तो विलय हो गया, मै बचा ही नहीं/
कबीर को याद करना पड़ेगा - ' प्रेम कि गली अति सांकरी, जा मे दो ना समाय'
और इस समर्पण से, इस प्रेम से तुम्हारा जीवन बदल जाएगा, तुम एक पल मे कुछ दूसरे हो जाओगे/ क्योंकि समस्त से प्रेमभाव का मतलब है कि अब इस विराट,असीम और अनंत ब्रह्माण्ड की रत्ती-रत्ती , इंच-इंच मेरा प्रियतम है/ पत्ते-पत्ते पर, कण-कण पर, फूल-फूल मे वही है, हर आँख मे वही है, हर तरफ वही है, सब कुछ वही है, उसके अलावा और कुछ भी तो नहीं है/ फिर हर आकर मे उस निराकार का आभास होने लगेगा/
तो भक्ति से तुम यह अर्थ मत लेना, कि मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या गिरजाघर मे पूजा कर आये तो हो गयी भक्ति/ हर आकर मे उस निराकार को खोज लेने का नाम भक्ति है/
और उस समस्त, असीम परमात्मा से अनंत प्रेम के बाद तुम्हारी बदली हुई जीवन - शैली का नाम भक्ति है/ अब तुम्हारा सारा व्यवहार दिव्य हो जाएगा, क्योंकि सभी मे वही है, सब तरफ, सब जगह वही है/ तुम्हारा हर ढंग दिव्य हो जाएगा - उठना-बैठना, खाना-पीना, देखना-बोलना क्योंकि केवल एक वही तो है/
अब कैसे किसी की निंदा-चुगली करोगे, अब कैसे किसी को गाली दोगे, कैसे किसी का अपमान करोगे, कैसे किसी पर क्रोध करोगे, कैसे अपने को दूसरे की सेवा से बचा सकोगे/
और इस प्रेम का ऐसा रंग चढ़ेगा, इस बोध का ऐसा नशा चढ़ेगा, ऐसी मस्ती छा जायेगी - की तुम्हारे पास अपना कुछ भी नहीं होगा, फिर भी सब कुछ अपना ही महसूस होगा/ तुम अकेले हो जाओगे, लेकिन अखंडित हो जाओगे, अब सारा ब्रह्मांड तुम्हारे साथ होगा/
तुम सम्पूर्ण अस्तित्व से एक हो जाओगे, अद्वैत गया - और अब स्वामी रामतीर्थ की तरह तुम्हे भी अब यह चाँद-तारे, यह सूर्य, यह पृथ्वी अपने अन्दर परिभ्रमण करते हुए महसूस होंगे/ और शायद अब तुम भी यही कहोगे - अह्मं ब्रह्मास्मि
K.K.Sharma
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